बवासीर
बवासीर या पाइल्स या (Hemorrhoid / पाइल्स या मूलव्याधि) एक ख़तरनाक बीमारी है। बवासीर 2 प्रकार की होती है। आम भाषा में इसको ख़ूँनी और बादी बवासीर के नाम से जाना जाता है। कही पर इसे महेशी के नाम से जाना जाता है।
1- खूनी बवासीर :- खूनी बवासीर में किसी प्रकार की तकलीफ नही होती है केवल खून आता है। पहले पखाने में लगके, फिर टपक के, फिर पिचकारी की तरह से सिफॅ खून आने लगता है। इसके अन्दर मस्सा होता है। जो कि अन्दर की तरफ होता है फिर बाद में बाहर आने लगता है। टट्टी के बाद अपने से अन्दर चला जाता है। पुराना होने पर बाहर आने पर हाथ से दबाने पर ही अन्दर जाता है। आखिरी स्टेज में हाथ से दबाने पर भी अन्दर नही जाता है।
2-बादी बवासीर :- बादी बवासीर रहने पर पेट खराब रहता है। कब्ज बना रहता है। गैस बनती है। बवासीर की वजह से पेट बराबर खराब रहता है। न कि पेट गड़बड़ की वजह से बवासीर होती है। इसमें जलन, दर्द, खुजली, शरीर मै बेचैनी, काम में मन न लगना इत्यादि। टट्टी कड़ी होने पर इसमें खून भी आ सकता है। इसमें मस्सा अन्दर होता है। मस्सा अन्दर होने की वजह से पखाने का रास्ता छोटा पड़ता है और चुनन फट जाती है और वहाँ घाव हो जाता है उसे डाक्टर अपनी जवान में फिशर भी कहते हें। जिससे असहाय जलन और पीडा होती है। बवासीर बहुत पुराना होने पर भगन्दर हो जाता है। जिसे अंग़जी में फिस्टुला कहते हें। फिस्टुला प्रकार का होता है। भगन्दर में पखाने के रास्ते के बगल से एक छेद हो जाता है जो पखाने की नली में चला जाता है। और फोड़े की शक्ल में फटता, बहता और सूखता रहता है। कुछ दिन बाद इसी रास्ते से पखाना भी आने लगता है। बवासीर, भगन्दर की आखिरी स्टेज होने पर यह केंसर का रूप ले लेता है। जिसको रिक्टम केंसर कहते हें। जो कि जानलेवा साबित होता है।
कारण
कुछ व्यक्तियों में यह रोग पीढ़ी दर पीढ़ी पाया जाता है। अतः अनुवांशिकता इस रोग का एक कारण हो सकता है। जिन व्यक्तियों को अपने रोजगार की वजह से घंटों खड़े रहना पड़ता हो, जैसे बस कंडक्टर, ट्रॉफिक पुलिस, पोस्टमैन या जिन्हें भारी वजन उठाने पड़ते हों,- जैसे कुली, मजदूर, भारोत्तलक वगैरह, उनमें इस बीमारी से पीड़ित होने की संभावना अधिक होती है। कब्ज भी बवासीर को जन्म देती है, कब्ज की वजह से मल सूखा और कठोर हो जाता है जिसकी वजह से उसका निकास आसानी से नहीं हो पाता मलत्याग के वक्त रोगी को काफी वक्त तक पखाने में उकडू बैठे रहना पड़ता है, जिससे रक्त वाहनियों पर जोर पड़ता है और वह फूलकर लटक जाती हैं। बवासीर गुदा के कैंसर की वजह से या मूत्र मार्ग में रूकावट की वजह से या गर्भावस्था में भी हो सकता है।
उपचार
रोग निदान के पश्चात प्रारंभिक अवस्था में कुछ घरेलू उपायों द्वारा रोग की तकलीफों पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। सबसे पहले कब्ज को दूर कर मल त्याग को सामान्य और नियमित करना आवश्यक है। इसके लिये तरल पदार्थों, हरी सब्जियों एवं फलों का बहुतायात में सेवन करें। तली हुई चीजें, मिर्च-मसालों युक्त गरिष्ठ भोजन न करें। रात में सोते समय एक गिलास पानी में इसबगोल की भूसी के दो चम्मच डालकर पीने से भी लाभ होता है। गुदा के भीतर रात के सोने से पहले और सुबह मल त्याग के पूर्व दवायुक्त बत्ती या क्रीम का प्रवेश भी मल निकास को सुगम करता है। गुदा के बाहर लटके और सूजे हुए मस्सों पर ग्लिसरीन और मैग्नेशियम सल्फेट के मिश्रण का लेप लगाकर पट्टी बांधने से भी लाभ होता है। मलत्याग के पश्चात गुदा के आसपास की अच्छी तरह सफाई और गर्म पानी का सेंक करना भी फायदेमंद होता है। यदि उपरोक्त उपायों के पश्चात भी रक्त स्राव होता है तो चिकित्सक से सलाह लें। इन मस्सों को हटाने के लिये कई विधियां उपलब्ध है। मस्सों में इंजेक्शन द्वारा ऐसी दवा का प्रवेश जिससे मस्से सूख जायें। मस्सों पर एक विशेष उपकरण द्वारा रबर के छल्ले चढ़ा दिये जाते हैं, जो मस्सों का रक्त प्रवाह अवरूध्द कर उन्हें सुखाकर निकाल देते हैं। एक अन्य उपकरण द्वारा मस्सों को बर्फ में परिवर्तित कर नष्ट किया जाता है। शल्यक्रिया द्वारा मस्सों को काटकर निकाल दिया जाता है।
परिचय
होमोरोइड या अर्श UK /ˈhɛmərɔɪdz/, गुदा-नालमें वाहिकाओं की वे संरचनाएं हैं जो मल नियंत्रण में सहायता करती हैं।[1][2] जब वे सूज जाते हैं या बड़ेहो जाते हैं तो वे रोगजनक या बवासीर[3] हो जाते हैं। अपनी शारीरिक अवस्था में वे धमनीय-शिरापरक वाहिका और संयोजी ऊतक द्वारा बने कुशन के रूप में काम करते हैं।
बवासीर दो प्रकार की होती है - खूनी बवासीर और बादी वाली बवासीर। खूनी बवासीर में मस्से खूनी सुर्ख होते है और उनसे खून गिरता है जबकि बादी वाली बवासीर में मस्से काले रंग के होते है और मस्सों में खाज पीडा और सूजन होती है। अतिसार, संग्रहणीऔर बवासीर यह एक दूसरे को पैदा करने वाले होते है।
मनुष्य की गुदा में तीन आवृत या बलियां होती हैं जिन्हें प्रवाहिणी, विर्सजनी व संवरणी कहते हैं जिनमें ही अर्श या बवासीर के मस्से होते हैं आम भाषा में बवासीर को दो नाम दिये गए है बादी बवासीर और खूनी बवासीर। बादी बवासीर में गुदा में सुजन, दर्द व मस्सों का फूलना आदि लक्षण होते हैं कभी-कभी मल की रगड़ खाने से एकाध बूंद खून की भी आ जाती है। लेकिन खूनी बवासीर में बाहर कुछ भी दिखाई नहीं देता लेकिन पाखाना जाते समय बहुत वेदना होती है और खून भी बहुत गिरता है जिसके कारण रकाल्पता होकर रोगी कमजोरी महसूस करता है। रोगजनक अर्श के लक्षण उपस्थित प्रकार पर निर्भर करते हैं। आंतरिक अर्श में आम तौर पर दर्द-रहित गुदा रक्तस्राव होता है जबकि वाह्य अर्श कुछ लक्षण पैदा कर सकता है या यदि थ्रोम्बोस्ड (रक्त का थक्का बनना) हो तो गुदा क्षेत्र में काफी दर्द व सूजन होता है। बहुत से लोग गुदा-मलाशय क्षेत्र के आसपास होने वाले किसी लक्षण को गलत रूप से “बवासीर” कह देते हैं जबकि लक्षणों के गंभीर कारणों को खारिज किया जाना चाहिए।[4] हालांकि बवासीर के सटीक कारण अज्ञात हैं, फिर भी कई सारे ऐसे कारक हैं जो अंतर-उदर दबाव को बढ़ावा देते हैं- विशेष रूप से कब्ज़ और जिनको इसके विकास में एक भूमिका निभाते पाया जाता है।
हल्के से मध्यम रोग के लिए आरंभिक उपचार मेंफाइबर (रेशेदार) आहार, जलयोजन बनाए रखने के लिए मौखिक रूप से लिए जाने वाले तरल पदार्थ की बढ़ी मात्रा, दर्द से आराम के लिए NSAID (गैर-एस्टरॉएड सूजन रोधी दवा) और आराम, शामिल हैं। यदि लक्षण गंभीर हों और परम्परागत उपायों से ठीक न होते हों तो अनेक हल्की प्रक्रियाएं अपनायी जा सकती हैं। शल्यक्रिया का उपाय उन लोगों के लिए आरक्षित है जिनमें इन उपायों का पालन करने से आराम न मिलता हो। लगभग आधे लोगों को, उनके जीवन काल में किसी न किसी समय बवासीर की समस्या होती है। परिणाम आमतौर पर अच्छे रहते हैं।
चिह्न व लक्षण
वाह्य तथा आंतरिक बवासीर भिन्न-भिन्न रूप में उपस्थित हो सकता है; हालांकि बहुत से लोगों में इन दोनो का संयोजन भी हो सकता है।[2] रक्ताल्पता पैदा करने के लिए अत्यधिक रक्त-स्राव बेहद कम होती है,[5] और जीवन के संकट पैदा करने वाले रक्तस्राव के मामले तो और भी कम हैं।[6] इस समस्या का सामना करने वाले बहुत से लोगों को लज्जा आती है[5] और मामला उन्नत होने पर ही वे चिकित्सीय लेने जाते हैं।[2]
सावधानियाँ एवं उपचार
- बवासीर के रोगी को बादी और तले हुये पदार्थ नही खाने चाहिये, जिनसे पेट में कब्ज की संभावना हो
- हरी सब्जियों का ज्यादा प्रयोग करना चाहिये,
- बवासीर से बचने का सबसे सरल उपाय यह है कि शौच करने उपरान्त जब मलद्वार साफ़ करें तो गुदा द्वार को उंगली डालकर अच्छी तरह से साफ़ करें, इससे कभी बवासीर नही होता है। इसके लिये आवश्यक है कि मलद्वार में डालने वाली उंगली कानाखून कतई बडा नही हो, अन्यथा भीतरी मुलायम खाल के जख्मी होने का खतरा होता है। प्रारंभ में यह उपाय अटपटा लगता है पर शीघ्र ही इसके अभ्यस्त हो जाने पर तरोताजा महसूस भी होने लगता है।
वाह्य
यदि थ्रोम्बोस्ड (रक्त का थक्का बनना) न बने तो वाह्य बवासीर कुछ समस्याएं पैदा कर सकता है।[7]हालांकि, जब रक्त का थक्का बनता है तो बवासीर काफी दर्द भरा हो सकता है।[2][3] फिर भी यह दर्द आम तौर पर 2 – 3 दिनों में कम हो जाता है।[5]हालांकि सूजन जाने में कुछ सप्ताह लग सकते हैं।[5]ठीक हो जाने के बाद त्वचा टैग (त्वचा का एक टुकड़ा) बचा रह सकता है[2] यदि बवासीर बड़े हों और स्वच्छता से जुड़ी समस्याएं पैदा करें तो वे आसपास की त्वचा में परेशानी पैदा कर सकते हैं और गुदा के आसपास खुजली पैदा कर सकते हैं।[7]
आंतरिक
आंतरिक वबासीर आमतौर पर दर्द रहित, चमकदार लाल होता है तथा मल त्याग के दौरान गुदा से रक्त स्राव हो सकता है।[2] आम तौर पर मल रक्त से लिपटा होता है यह एक स्थिति होती है जिसेहेमाटोचेज़िया कहते है इसमें रक्त टॉएलेट पेपर पर दिखता है या शौच स्थान से बह जाता है।[2] मल का अपना रंग सामान्य होता है।[2] अन्य लक्षणों में श्लेष्म स्राव, यदि मांस का टुकड़ा गुदा से भ्रंश हो तो वह,खिचाव तथा असंयमित मलशामिल हैं।[6][8]आंतरिक बवासीर आम तौर पर केवल तब दर्द रहित होते हैं जब वे थ्रोम्बोस्ड या नैक्रोटिक हो जाते हैं।[2]
कारण
लक्षणात्मक बवासीर का सटीक कारण अज्ञात है।[9]इसके होने में भूमिका निभाने वाले कारकों में अनियमित मल त्याग आदतें (कब्ज़ या डायरिया), व्यायाम की कमी, पोषक कारक (कम-रेशे वाले आहार), अंतर-उदरीय दाब में वृद्धि (लंबे समय तक तनाव, जलोदर, अंतर-उदरीय मांस या गर्भावस्था), आनुवांशिकी, अर्श शिराओं के भीतर वॉल्व की अनुपस्थिति तथा बढ़ती उम्र शामिल हैं।[3][5] अन्य कारक जो जोखिम बढ़ाते हैं उनमें मोटापा, देर तक बैठना,[2] या पुरानी खांसी और श्रोणि तल दुष्क्रियाशामिल हैं।[4] हालांकि इनका संबंध काफी कमजोर है।[4]
गर्भावस्था के दौरान भ्रूण का उदर पर दाब तथा हार्मोन संबंधी बदलाव अर्श वाहिकाओं में फैलाव पैदा करते हैं। प्रसव के कारण भी अंतर-उदरीय दाब बढ़ता है।[10] गर्भवती महिलाओं को शल्यक्रिया उपचार की बेहद कम आवश्यकता पड़ती है क्योंकि प्रसव के पाद लक्षण आमतौर पर समाप्त हो जाते हैं।[3]
पैथोफिज़ियोलॉजी (रोग के कारण पैदा हुए क्रियात्मक परिवर्तन)
अर्श कुशन सामान्य मानवीय संरचना का हिस्सा हैं और वे रोग जनक केवल तब बनते हैं जब उनमें असमान्य परिवर्तन होते हैं।[2] सामान्य तौर पर गुहा मार्ग में तीन मुख्य प्रकार के कुशन उपस्थित होते हैं।[3] ये बाएं पार्श्व, दाएँ अग्रस्थ और दाएँ कूल्हे की स्थितियों पर स्थित होते हैं।[5] इनमें न तो धमनियांहोती है और न ही नसें बल्कि इनमें रक्त वाहिकाएं होती हैं जिनको साइनोसॉएड्स कहा जाता है तथा इनमें संयोजी ऊतक तथा चिकनी मांसपेशियां होती हैं।[4] साइनोसॉएड की दीवारों में रक्त वाहिकाओं के समान मांसपेशीय ऊतक नहीं होते हैं।[2] रक्त वाहिकाओं के इस समूह को अर्श स्नायुजालकहाजाता है।[4]
अर्श कुशन मल संयम के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। ये आराम की स्थिति में गुदा बंदी दाब का 15–20% भाग का योगदान करते हैं और मल को मार्ग देते समय गुदा संवरणी मांसपेशियों की रक्षा करते हैं।[2]जब कोई व्यक्ति नीचे झुकता है तो अंतर-उदर दाब बढ़ता है और अर्श कुशन, अपने आकार को संयोजित करके गुदा को बंद रखने में सहयोग करता है।[5] यह विश्वास किया जाता है कि बवासीर लक्षण तब पैदा होते हैं जब ये संवहनी संरचनाएं नीचे की ओर सरकती हैं या जब शिरापरक दबाव बहुत अधिक बढ़ जाता है।[6] बढ़ा हुआ गुदा संवरणी दाब भी बवासीर लक्षणों में शामिल हो सकता है।[5] बवासीर दो तरह के होते हैं:बढ़े हुए अर्श स्नायुजाल के कारण आंतरिक और घटे हुए अर्श स्नायुजाल के कारण वाह्य।[5] एकदांतेदार पंक्ति दोनो क्षेत्रों को विभक्त करती है।[5]
निदान
बवासीर का निदान आम तौर पर शारीरिक परीक्षण से किया जाता है।[11] गुदा तथा इसके आसपास के क्षेत्र को देख कर वाह्य या भ्रंश बवासीर का निदान किया जा सकता है।[2] किसी गुदा परीक्षण को करके संभव गुदीय ट्यूमर, पॉलिप, बढ़े हुए प्रोस्टेट या फोड़ेकी पहचान की जाती है।[2] दर्द के कारण, यह परीक्षण शांतिकर औषधि के बिना संभव नहीं है, हालांकि अधिकांश आंतरिक बवासीर में दर्द नहीं होता है।[3] आंतरिक बवासीर की देख कर पुष्टि करने के लिए एनोस्कोपी की जरूरत पड़ सकती है जो कि एक खोखली ट्यूब वाली युक्ति होती है जिसके एक सिरे पर प्रकाश का स्रोत लगा होता है।[5] बवासीर के दो प्रकार होते हैं: वाह्य तथा आंतरिक। इनकोदांतेदार पंक्तिके सापेक्ष इनकी स्थिति से निर्धारित किया जाता है।[3] कुछ लोगों में एक साथ दोनो के लक्षण होते हैं।[5] यदि दर्द उपस्थित हो तो यह स्थिति एक गुदा फिशर या वाह्य बवासीर की हो सकती है न कि आंतरिक बवासीर की।[5]
चिकित्सा
सबसे पहले रोग में मुख्य कारण कब्ज को दूर करना चाहिए जिसके लिए ठण्डा कटि स्नाना व एनिमा लेना चाहिए पेट पर ठण्डी मिट्टी पट्टी रखनी चाहिए लेकिन यदि सूजन ज्यादा हो तो एनिमा लेने की बजाय त्रिफला आदि चूर्ण का सेवन करना चाहिए गुदा पर ठण्डी मिट्टी की पट्टी रखनी चाहिए। और सूजन दूर होने पर ही तेज आदि लगाकर एनिमा लेना चाहिए। उपवास करना चाहिए और यदि उपवास ना कर सके तो फलाहार या रसा हार पर रखना चाहिए और साथ-साथ आसन, प्राणायाम, कपाल भाति आदि करने से इस भयंकर रोग से छुटकारा पाया जा सकता है।
बवासीर के आयुर्वेदिक उपचार • डेढ़-दो कागज़ी नींबू अनिमा के साधन से गुदा में लें। दस-पन्द्रह संकोचन करके थोड़ी देर लेते रहें, बाद में शौच जायें। यह प्रयोग 4- 5 दिन में एक बार करें। 3 बार के प्रयोग से ही बवासीर में लाभ होता है। साथ में हरड या बाल हरड का नित्य सेवन करने और अर्श (बवासीर) पर अरंडी का तेल लगाने से लाभ मिलता है। • नीम का तेल मस्सों पर लगाने से और 4- 5 बूँद रोज़ पीने से लाभ होता है। • करीब दो लीटर छाछ (मट्ठा) लेकर उसमे 50 ग्राम पिसा हुआ जीरा और थोडा नमक मिला दें। जब भी प्यास लगे तब पानी की जगह पर यह छास पी लें। पूरे दिन पानी की जगह यह छाछ (मट्ठा) ही पियें। चार दिन तक यह प्रयोग करें, मस्से ठीक हो जायेंगे। • अगर आप कड़े या अनियमित रूप से मल का त्याग कर रहे हैं, तो आपको इसबगोल भूसी का प्रयोग करने से लाभ मिलेगा। आप लेक्टूलोज़ जैसी सौम्य रेचक औषधि का भी प्रयोग कर सकते हैं। • आराम पहुंचानेवाली क्रीम, मरहम, वगैरह का प्रयोग आपको पीड़ा और खुजली से आराम दिला सकते हैं। • ऐसे भी कुछ उपचार हैं जिनमे शल्य चिकित्सा की और अस्पताल में भी रहने की ज़रुरत नहीं पड़ती। बवासीर के उपचार के लिये अन्य आयुर्वेदिक औषधियां हैं: अर्शकुमार रस, तीक्ष्णमुख रस, अष्टांग रस, नित्योदित रस, रस गुटिका, बोलबद्ध रस, पंचानन वटी, बाहुशाल गुड़, बवासीर मलहम वगैरह। बवासीर की रोकथाम: • अपनी आँत की गतिविधियों को सौम्य रखने के लिये, फल, सब्ज़ियाँ, सीरियल, ब्राउन राईस, ब्राउन ब्रेड जैसे रेशेयुक्त आहार का सेवन करें। • तरल पदार्थों का अधिक से अधिक सेवन करें।
आंतरिक
आंतरिक बवासीर वे हैं जो दांतेदार पंक्ति के ऊपर पैदा होते हैं।[7] वे स्तम्भाकार उपकला से ढ़ंके होते हैं जिनमें दर्द ग्राहीनहीं होते हैं।[4] इनको 1985 में चार स्तरों में वर्गीकृत किया गया था जो कि भ्रंश(आगे के विस्तार) के स्तर पर आधारित है।[3][4]
- ग्रेड I: कोई भ्रंश नहीं। केवल उभरी रक्त वाहिकाएं।[11]
- ग्रेड II: नीचे झुकने पर भ्रंश लेकिन तुरंत घट जाता है।
- ग्रेड III: नीचे झुकने पर भ्रंश लेकिन मैनुअल रूप से घटाना बढ़ता है।
- ग्रेड IV: भ्रंश होता है और उसे मैनुअल तरीके से नहीं हटाया जा सकता है।
वाह्य
वाह्य बवासीर वे हैं जो दांतेदार पंक्ति के नींचे पैदा होते हैं।[7] अचर्म से नज़दीकी से तथा त्वचा से बाहरी से ढ़ंके रहते हैं, ये दोनो ही दर्द तथा तापमान के प्रति संवेदी होते हैं।[4]
विभेदक
गुदा एवं मलाशय संबंधी बहुत सी समस्याएं, जिनमेंफिसर, नालव्रण, फोड़े, कोलोरेक्टल कैंसर, गुदा वैरिक्स तथा खुजलाहट शामिल हैं, समान लक्षणों वाली होती हैं और इनको गल्ती से बवासीर के रूप में संदर्भित किया जा सकता है।[3] गुदीय रक्त स्राव का कारण कोलोरेक्टल कैंसर, कोलाइटिस के कारण हो सकती है तथा इसमें सूजन वाला आंत्र रोग,डाइवर्टिक्युलर रोग तथा एंजियोडाइप्लासियाभीशामिल हैं।[11] यदि रक्ताल्पता पस्थित है तो अन्य संभावित कारणों पर भी विचार किया जाना चाहिए।[5]
अन्य परिस्थितियां जो गुदीय मांस में शामिल है वे निम्नलिखित हैं: त्वचा टैग, गुदा गाँठ, गुदीय भ्रंश,पॉलिप तथा बढ़ा हुआ गुदीय उभार।[5] बढ़े हुएपोर्टल रक्तचाप (पोर्टल शिरापरक प्रणाली में रक्त दाब) के कारण हुए गुदा वैरिक्स भी बवासीर जैसी स्थिति पैदा कर सकता है लेकिन वह एक भिन्न स्थिति हैं।[5]
बचाव
बचाव के कई उपायों की अनुशंसा की गयी है जिनमें मलत्याग करते समय ज़ोर लगाने से बचना, कब्ज़ तथा डायरिया से बचाव शामिल है जिसके लिए उच्च रेशेदार भोजन तथा पर्याप्त तरल को पीना या रेशेदार पूरकों को लेना तथा पर्याप्त व्यायाम करना शामिल है।[5][12] मलत्याग के प्रयास में कम समय खर्च करना, शौच के समय कुछ पढ़ने से बचना[3] और साथ ही अधिक वज़न वाले लोगों के लिए वजन कम करना तथा अधिक भार उठाने से बचना अनुशंसित है।[13]
प्रबंधन
परम्परागत उपचार में आमतौर पर पोषण से भरपूररेशेदार आहार लेना, तथा जलयोजन बनाए रखने के लिए मौखिक रूप से तरल ग्रहण करना, गैर-एस्टरॉएड सूजन रोधी दवाएं (NSAID), सिट्ज़ स्नानतथा आराम शामिल हैं।[3]रेशेदार आहार की बढ़ी मात्रा ने बेहतर परिणाम दर्शाए हैं,[14] तथा इसे आहारीय परिवर्तनों द्वारा या रेशेदार पूरकोंकी खपत से हासिल किया जा सकता है।[3][14] सिट्ज़ स्नान के माध्यम से उपचार के किसी भी बिंदु पर साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।[15] यदि इनको उपयोग किया जाता है तो इनको एक बार में 15 मिनट तक सीमित रखना चाहिए।[4]
हालांकि बवासीर के उपचार के लिए बहुत सारे स्थानीय एजेंट तथा वर्तियां (सपोसिटरीज़) उपलब्ध हैं, लेकिन इनके समर्थन में साक्ष्य बेहद कम उपलब्ध हैं।[3] स्टेरॉएड समाहित एजेंटों को 14 दिन से अधिक की अवधि तक उपयोग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वे त्वचा को पतला करते हैं।[3] अधिकांश एजेंटों में सक्रिय तत्वों के संयोजन शामिल होते हैं।[4]इनमें निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं: एक बाधा क्रीम जैसे पेट्रोलियम जेली या ज़िंक ऑक्साइड, एक दर्दहारी एजेंट जैसे कि लिडोकेन और एक वैसोकॉन्सट्रिक्टर (रक्त शिराओं के मुहाने को संकीर्ण करने वाला) जैसे कि एपीनेफ्राइन।[4] फ्लैवोनॉएड के लाभों पर प्रश्नचिह्न लगता है जिसके कि संभावित पश्च-प्रभाव होते हैं। [4][16] लक्षण गर्भवस्था के कारण असमान्य रूप से दिखने हैं; इस कारण से उपचार अक्सर प्रसव के बाद तक टल जाते हैं।[17]
प्रक्रियाएं
कार्यालय आधारित कई सारी प्रक्रियाएं निष्पादित की जा सकती हैं। ये आम तौर पर सुरक्षित होती हैं, जबकि बेहद कम पश्च प्रभाव जैसे कि पेरिएलन सेप्सिस हो सकते हैं।[11]
- रबर बैंड बंधन उनको अनुशंसित किया जाता है जिनको ग्रेड 1 से 3 तक का रोग होता है।[11] यह एक प्रक्रिया है जिसमें इलास्टिक बैंडों को भीतरी अर्श में, इशको जानेवाले रक्त प्रवाह को रोकने के लिए,दांतेदार पंक्ति के 1 सेमी, लगाया जाता है। 5–7 दिनों के भीतर, सूख चुका बवासीर गिर जाता है। यदि बैंड को दांतेदार पंक्ति के बहुत पास लगा दिया जाता है तो इसके तत्काल बाद गंभीर दर्द पैदा हो सकता है।[3] इससे ठीक होने की दर लगभग 87%[3] तक होती है तथा जटिलता की दर 3% तक होती है।[11]
- स्कलेरोथेरेपी में, अर्श में फीनॉल जैसे एकस्कलेरोसिंग एजेंट का इंजेक्शन लगाया जाता है। इससे शिराओं की दीवार गिर जाती हैं और बवासीर सूख जाता है। उपचार के चार वर्षों के बाद इसकी सफलता की दर लगभग 70%[3] है, जो कि रबर बैंड बंधन से उच्च है।[11]
- कई सारी दहन विधियों को बवासीर के लिए प्रभावी दर्शाया गया है, लेकिन उनको तभी उपयोग किया जाता है जब अन्य विधियां विफल हो जाती हैं। इस प्रक्रिया को विद्युत दहन, अवरक्त विकिरण,लेज़र शल्यक्रिया[3] या क्रायोसर्जरी का उपयोग करके संपन्न किया जा सकता है।[18] अवरक्त विकिरण दहन का विकल्प ग्रेड 1 या 2 के रोग के लिए किया जा सकता है।[11] वे जिनमें ग्रेड 3 या 4 का रोग होता है उनमें रोग के पुनः होने की दर बहुत उच्च होती है।[11]
शल्य-क्रिया
यदि परम्परागत तथा सरल प्रक्रियाएं विफल हो जाएं तो कई सारी शल्यक्रिया तकनीकें उपयोग की जा सकती हैं।[11] सभी शल्यक्रिया उपचारों में कुछ जटिलताएं होती है जिनमें रक्त स्राव, संक्रमण, गुदा की सिकुड़न तथा मूत्र प्रतिधारण शामिल हैं, ऐसा मूत्राशय को आपूर्ति करने वाली नसों की मलाशय के साथ अति निकटता के कारण होता है।[3] मल असंयम विशेष रूप से तरल का भी छोटा सा जोखिम शामिल हो सकता है,[4][19] जिसकी दरें 0% से 28% तक रिपोर्ट की गयी हैं।[20] श्लेष्मीय बहिर्वर्त्मता भी एक स्थिति है जो शल्यक्रिया द्वारा बवासीर को निकाले जाने से उत्पन्न हो सकती है (अक्सर गुदा संकीर्णता के साथ-साथ)।[21] इसमें श्लेष्म झिल्ली गुदा से पलट जाती है, जो कि गुदीय भ्रंश के एक हल्के स्वरूप के समान होता है।[21]
- बवासीर को शल्यक्रिया द्वारा निकालने की प्रक्रिया प्राथमिक रूप से गंभीर मामलों में की जाती है।[3]इस प्रक्रिया में शल्यक्रिया के बाद काफी दर्द होता है और आम तौर पर इसमें सुधार में 2–4 सप्ताह लगते हैं।[3] हालांकि, ग्रेड 3 वाले बवासीर के मामले में दीर्घ अवधि में यह रबर बैंड बंधन से अधिक लाभकारी है।[22] यदि 24 से 72 घंटों के भीतर कर दिया जाए तो यह उन लोगों के लिए अनुशंसित उपचार है जिनको थ्रोम्बोस्ड वाह्य बवासीर की समस्या है।[7][11] ग्लिसरील ट्राइनाइट्रेट मरहम पश्च प्रक्रिया, दर्द तथा घाव भरने में मदद करती है।[23]
- डॉप्लर-निर्देशित, पार-गुदीय अर्श डीआर्ट्रिएलाइज़ेशन एक न्यूतम आक्रामक उपचार है जिसमें अल्ट्रासाउंड डॉप्लर का उपयोग करके धमनियों से रक्त प्रवाह को स्थापित किया जाता है। फिर इन धमनियों को “बांध दिया” जाता है तथा भ्रंश ऊतकों को उनकी सामान्य स्थिति में वापस बांध दिया जाता है। इनकी पुनः होने की दर थोड़ी अधिक होती है लेकिन बवासीर की शल्यक्रिया (हेमरॉएडेक्टमी) की तुलना में इनकी जटिलताएं कम होती है।[3]
- स्टेपल की जाने वाली बवासीर की शल्यक्रिया (हेमरॉएडेक्टमी), जिसे स्टेपल्ड हेमरॉएडोपेक्सी कहा जाता है एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अर्श के असमान्य रूप से वढ़े ऊतकों को हटाया जाता है, जिसके बाद शेष अर्श ऊतकों को वापस इसकी सामान्य शारीरिक स्थिति में रख दिया जाता है। आम तौर पर यह कम दर्द भरा होता है तथा अर्श के संपूर्ण रूप से निकाले जाने की तुलना में इसमें घाव भराव भी तेजी के साथ होता है।[3] हालांकि पारम्परिक बवासीर की शल्यक्रिया (हेमरॉएडेक्टमी) में लाक्षणिक बवासीर के वापस होने की संभावना अधिक होती है[24] और इसी कारण इसे केवल ग्रेड 2 व 3 के रोग के लिए अनुशंसित किया जाता है।[11]
महामारी विज्ञान
यह निर्धारित करना कठिन है कि बवासीर कितना आम है क्योंकि बहुत सारे लोग स्वास्थ्य प्रदाताओं से इस स्थिति में संपर्क नहीं करते हैं।[6][9] हालांकि, यह विश्वास किया जाता है कि लाक्षणिक बवासीर लगभग 50% अमरीकी जनसंख्या को उनके जीवन के किसी न किसी समय पर प्रभावित करती है तथा किसी भी खास समय पर लगभग 5% जनसंख्या इससे प्रभावित रहती है।[3] दोनों लिंगों में लगभग समान रोग संभावनाएं होती हैं[3] जिसकी होने की दर 45 से 65 वर्ष की उम्र में अधिकतम होती है।[5] यहकॉकेशियन[25] तथा उच्च सामाजिक आर्थिक स्थिति वाले लोगों में उच्च दर से होता है।[4] दीर्घावधि परिणाम सामान्यतया अच्छे होते हैं, हालांकि कुछ लोगों को लाक्षणिक बवासीर बार-बार हो सकता है।[6] बेहद छोटे अनुपात में लोगों को शल्यक्रिया की जरूरत होती है।[4]
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